शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

क्या कहूँ...?

क्या कहूँ...? आज हिन्दी चिट्ठाकारों के जगत में पहला कदम रख रहा हूँ। खाली पन्ना मुँह बाये देख रहा है। लिखने से पहले मन में विचारों की उथल पुथल मची थी - अब लिखने बैठा हूँ तो सोच रहा हूँ कि क्या लिखूँ...? कल क्रिसमिस का दिन था। इस बरस कुछ उत्साह की कमी देख रहा हूँ हर दिशा में। दूकानें ग्राहकों की राह ताकती हैं और ग्राहक अपनी जेबों में कम होते हुए पैसों को टटोल रहे हैं। टी.वी. पर हर न्यूज़ चैनल केवल आर्थिक मंदी का ही समाचार सुना रही है। जानता हूँ की हर त्योहार तो हवा में तैरता है और हर जन उसे अनुभव करता है; अपनी साँसों में भरता है। सहसा रगों में बहते रुधिर में एक उत्साह भर जाता है और मानव इस त्योहार के विशाल यज्ञ में अपनी आहुति डालता है। पर इस बरस तो हवा में केवल आर्थिक मंदी का समाचार ही तैर रहा है। रगों में बहते ख़ून की गति भी भविष्य की अनिश्चितता के भय से धीमी हो गई है। उत्साह कैसा...? हतोत्साहित है यह समाज! चलो कम से मानसी ने अपने ब्लॉग पर क्रिसमिस के संगीत को अपलोड किया! सुना.. अच्छा लगा। क्या कहूँ...? २००८ का वर्ष अपने अंतिम दिनों को गिन रहा है। बीते वर्ष में कितना सार्थक काम कर पाया हूँ; आँकने के दिन हैं। अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं -

मोड़ पर खड़ा नव वर्ष झाँकता है
अपना लक्ष्य, अपना सामर्थ्य आँकता है
देखता है जो गत वर्ष की दशा
अनमना, मानव की नीयत भाँपता है

लेते हैं हर वर्ष प्रण शांति का -
नव चेतन, नव समाज, नव क्रांति का
मकर आते ही बिखर जाते संकल्प सारे
रह जाता शासन – अशान्ति का, भ्रान्ति का

कोई कहता है नव-शासक नव शासन दूँगा
समता का अधिकार – सम अनुशासन दूँगा
छ्द्म नीति, नीयत होती है इन शठों की,
नहीं कहते – लूट तुम्हारे सर्व संसाधन लूँगा

कहीं सुख-वैभव, कहीं व्यथित हर नर-नारी
शान्ति हेतु कहीं अभी है नर-संहार जारी
हुआ है सुलभ पाना गोला – बारूद वहाँ,
बस – मुट्ठी भर आनाज है पाना भारी

शायद ईराक के युद्ध के आरंभिक दिनों की है। कविता पूरी नहीं कर पाया था कभी। इतने वर्ष बीत गए - लगता है कि आज के लिए ही लिखी गई थी यह कविता। बरस दर बरस बीत गए। न इन्सान बदला न उसके वायदे बदले। क्या कहूँ...! पहली पोस्ट है ब्लॉग जगत में ... निराशा से भरी!यह भी जानता हूँ की प्रसन्न रहना मानव की आवश्यकता है। तभी तो हर सभ्यता, हर काल, हर संस्कृति और हर विषम परिस्थिति में भी मानव उत्सव के बहाने ढूँढ लेता है। जनवरी में अमेरिका में नया शासन आने वाला है। लगता है कि एक नया विचार जन्म ले रहा है। निराशा के काले बादलों के पीछे से एक नई किरण प्रस्फुटित होती दीखती है। आप भी देखिए मैं भी प्रसन्न होने का बहाना ढूँढ रहा हूँ इस निराशावादी लेख के अन्त तक आते आते। अब और क्या कहूँ...?